Hinduism is the Only Dharma

Hinduism is the Only Dharma in this multiverse comprising of Science & Quantum Physics.

Josh Schrei helped me understand G-O-D (Generator-Operator-Destroyer) concept of the divine that is so pervasive in the Vedic tradition/experience. Quantum Theology by Diarmuid O'Murchu and Josh Schrei article compliments the spiritual implications of the new physics. Thanks so much Josh Schrei.

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Sunday, July 12, 2020

ज्ञान और प्रज्ञा – योगसूत्र। यह प्रज्ञा है क्या ?

सामान्यतः बुद्धि विवेक और ज्ञान को एक ही अर्थ के प्रवाह में प्रयोग किया जाता है । किन्तु इनकी अर्थ-गर्भिता और गूढ़-गर्भिता के भावो में अंतर है।

बुद्धि वह होती है जो यथार्थ निर्णय देने वाली हो । जो जैसा है वैसा ही देखना , जानना
जब बुद्धि सजग हो तो विवेक जागता है ,
विवेक के परिपक्व होने पर प्रज्ञा --प्रखर ज्ञान का उदय होता है ।
जब प्रज्ञा परिपक्व होती है तो ऋतुम्भरा ज्ञान का उदय होता है -ज्ञान की शुद्धतम अवस्था।
प्रज्ञा ज्ञान की ही एक अवस्था है ।

ज्ञान और प्रज्ञा – योगसूत्र में .

मह्रिषी पतंजलि विरचित “योगसूत्र” में इस विषय पर विशद चर्चा की गई है . उसे देखते हैं

योगसूत्र १/१६ – की व्याख्या में भाष्यकार “व्यास” लिखते हैं “ ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराग्यं “ अर्थात ज्ञान की पराकाष्टा वैराग्य है

जबकि प्रज्ञा – तीन तरह से प्राप्त हो सकती है

आगम (श्रुति ) : पठन अर्थात पढने से या (श्रुतियों – वैदिक साहित्य के ) ज्ञान से

अनुमान : मनन अर्थात सोचने से

निर्विचार समाधि के उपरान्त

योगसूत्र के अनुसार , अंतिम प्रकार की प्रज्ञा – सर्वश्रेष्ठ होती है क्योंकि यह आत्म साक्षात्कार से प्राप्त होती है – महज सैद्धान्तिक या अनुमानित नहीं है .

यह प्रज्ञा है क्या ?

स्मृति परिशुद्ध होने पर स्वरुप शून्य होकर अर्थमात्र दिखाई देने वाली सब समाप्त करनेवाली अवस्था अचानक मिल जाती है – जिसका सतत प्रवाह – अध्यात्म प्रसाद रुपी - प्रज्ञा है

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् (1-49)

विशेष विषयक होने के कारण श्रुत और अनुमान से जनित प्रज्ञा से भिन्न विषयक है

यह प्रज्ञा इसीलिए ऋतम्भरा प्रज्ञा कहलाती है - ऋतम्भरा अर्थात सत्यपूर्ण

इसके सात भेद हैं –

तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा (२/२७ )

प्रज्ञा सात प्रकार की होती है

जिनमें चार प्रकार की कार्य विमुक्ति है . यह बाहरी घटनाओं से अपने चेतन को अलग करता है ,स्वतंत्र करता है

बाकी तीन प्रकार की चित्त विमुक्ति है , जिससे मन से स्वतंत्रता मिल जाती है.

यह प्रज्ञा प्राप्त होने के पूर्व विवेक ख्याति – अर्थात – बुद्धि से पुरुष को अलग करने का विवेक आना चाहिए .

ऋतम्भरा प्रज्ञा की इन सातों प्रकार के बारे में बताना काफी विशद रूप ले लेगा

इन सात भेदों के बावजूद यह प्रज्ञा क्रमश: नहीं मिलती है . इस संबंध में वाचस्पति मिश्र योगसूत्र पर लिखी अपनी टीका में कहते हैं :

रज और तम गुण से शून्य हो जाने से बुद्धि में प्रकाश का उत्कर्ष होता है – ज्ञान शक्ति का चरम उत्कर्ष होने पर जो कुछ प्रज्ञात होता है वह संपूर्ण सत्य होता है और वह ज्ञान साधारण अवस्था के ज्ञान के समान क्रमशः उत्पन्न नहीं होता किंतु उसमें ज्ञेय विषय के सभी धर्म एक साथ प्रकाशित होते हैं फिर भी यह प्रज्ञा श्रुतानुमानजात प्रज्ञा नहीं है किंतु साक्षात्कार प्रधान है . (श्रुतानुमानजात : श्रुति और अनुमान जनित )

धारणा , ध्यान और समाधि तीनों का एक ही विषय पर संघठित होना संयम कहलाता है - जिससे प्रज्ञालोक मिलता है

तज्जयात्प्रज्ञालोक: (3/५ )

उस से प्रज्ञा लोक मिलता है .

उपरोक्त से स्पष्ट है – ज्ञान सबको मिलता है – पर प्रज्ञा नहीं .

आगे देखते हैं , आधुनिक विचारक इस पर क्या विचार रखते हैं

पहले : जग्गी वासुदेव :

बुद्धि और प्रज्ञा का फर्क समझना होगा हमें

अंग्रेजी में दो शब्द हैं – इंटेलेक्ट और इंटेलीजेंस। हिंदी में इंटेलेक्ट को बुद्धि और इंटेलीजेंस को प्रज्ञा के रूप में समझ सकते हैं। अधिकांश लोग यह समझ ही नहीं पाते कि कहां बुद्धि का दायरा खत्म होता है और कहां से प्रज्ञा का आयाम शुरू होता है।

योगसूत्र की व्याख्या ( पतंजलि . व्यास और वाचस्पति मिश्र – तीनो द्वारा ) के अनुसार यह बिलकुल गलत है . प्रज्ञा – स्वरुपशुन्यता के फलस्वरूप अंतर का एकदम स्व प्रकाशित होना है – शुन्यता यहाँ प्रधान है – बुद्धिमता ( इंटेलीजेंस) कदापि नहीं . सबसे दुःख का विषय यह है कि – योग के आठ में से तीन अंगों से ( धारणा .ध्यान , समाधि ) बनने वाली प्रज्ञा को उन्होंने महज़ एक शब्द – इंटेलिजेंस – में लपेट लिया – वह भी तब – जब अकेले – ध्यान – ही मैडिटेशन – कहलाता है . स्पष्ट है – उनकी प्रज्ञा सम्बन्धी यह अवधारणा सिरे से ही गलत है और प्रमुखत: विदेशी सह अंग्रेजी साधकों हेतु गढ़ा गया है – जिसमें दिव्यता है ही नहीं . आत्म आलोक ,स्व प्रकाश है ही नहीं .

सबसे बड़ी बात यह है कि – योग सूत्र (२/२७ ) के भाष्य /टीका में – सप्तधा प्रज्ञा के छठे प्रकार की चर्चा करते हुए यह लिखा गया है –

स्पंदन निवृत - समस्त गुण पर्वत शिखर से – पत्थरों के टूट गिर मिट्टी में मिल जाने सदृश्य – बुद्धि की इस उच्च अवस्था से गिर – अपने कारणों में मिल हतं हो चुके हैं.

अब योगसूत्र के इस भाष्य – में बुद्धि की उच्च अवस्था से गिरना निहित है – और जग्गी वासुदेव जी – फिर भी इसे इंटेलिजेंस से जोड़ना चाह रहे हैं .

अंत में – श्री अरविंदो

मनुष्यके अंदर दो संबद्ध शक्तियां है -- ज्ञान और प्रज्ञा । ज्ञान एक विकृत माध्यममें देखा हुआ उतना-सा ही सत्य है जितना कि मन टटोलता हुआ प्राप्त कर सकता है; प्रज्ञा वह है जिसे दिव्य दर्शनका नेत्र आत्मामें देखता है ।

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