Hinduism is the Only Dharma

Hinduism is the Only Dharma in this multiverse comprising of Science & Quantum Physics.

Josh Schrei helped me understand G-O-D (Generator-Operator-Destroyer) concept of the divine that is so pervasive in the Vedic tradition/experience. Quantum Theology by Diarmuid O'Murchu and Josh Schrei article compliments the spiritual implications of the new physics. Thanks so much Josh Schrei.

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Thursday, March 17, 2011

इस्‍लाम भी हिन्‍दू-माता का ही पुत्र है - फिरदोसी बाबा



इस्‍लाम भी हिन्‍दू-माता का ही पुत्र है - फिरदोसी बाबा

हिन्दू-धर्म ही संसार में सबसे प्राचीन धर्महै’- यह एक प्रसिद्ध और प्रत्यक्ष सच्चाई है।कोई भी इतिहासवेत्ता आज तक इससेअधिक प्राचीन किसी धर्म की खोज नहींकर सके हैं। इससे यही सिद्ध होता है किहिन्दू-धर्म ही सब धर्मों का मूलउद्गम-स्थान है। सब धर्मों ने किसी-न-किसीअंश में हिन्दू मां का ही दुग्धामृत पानकिया है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जीका वचन है- ‘बुध किसान सर बेद निजमते खेत सब सींच।‘ 

अर्थात् वेद एकसरोवर है, जिसमें से (भिन्न-भिन्नमत-मतान्तरों के समर्थक) पण्डितरूपी किसान लोग अपने-अपने मत (सम्प्रदाय) रूपी खेत कोसींचते रहते हैं।

उक्त सिद्धान्तानुसार इस्लाम को भी हिन्दू माता का ही पुत्र मानना पड़ता है। वैसे तो अनेकों इस प्रकार के ऐतिहासिक प्रमाण हैं, जिनके बलपर सिद्ध किया जा सकता है कि इस्लाम का आधार ही हिन्दू-धर्म है; परन्तु विस्तार से इस विषयको न उठाकर यहाँ केवल इतना ही बताना चाहता हूँ कि मूलत. हिन्दू-धर्म और इस्लाम में वस्तुत. कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं। इस्लाम के द्वारा अरबी सभ्यता का अनुकरण होने के कारण ही दोनों परस्पर भिन्न हो गये हैं।


धर्मानुकूल संस्कृति भारत में ही है

वास्तविक सिद्धान्त तो यही है कि किसी देश की सभ्यता और संस्कृति पूर्णरूप से धर्मानुकूल ही हो; परन्तु भारत के अतिरिक्त और किसी भी देश में इस सिद्धान्त का अनुसरण नहीं किया जाता। वरन् इसके विपरीत धर्म को ही अपने देश की प्रचलित सभ्यता के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न किया जाता है। यदि किसी धर्म प्रवर्तक ने सभ्यता को धर्मानुकूल बनाने का प्रयत्न किया भी तो उसके जीवन का अन्त होते ही उसके अनुयायियों ने अपने देश की प्रचलित सभ्यता की अन्धी प्रीति के प्रभाव से धर्म को ही प्रचलित सभ्यता का दासानुदास बना दिया। श्री मुहम्मद जी के ज्योति-में जोत समाने के पश्चात् इस्लाम के साथ भी यही बर्ताव किया गया। केवल इसी कारण हिन्दू-धर्म और इस्लाम में भारी अन्तर जान पड़ता है।

प्राचीन अरबी सभ्यता में युद्ध वृत्ति को विशेष सम्मान प्राप्त है। इसी कारण जब अरब के जनसाधारण के चित्त और मस्तिष्क ने इस्लाम के नवीन सिद्धान्तों को सहन नहीं किया, तब वे उसे खड्ग और बाहुबल से दबाने पर उद्यत हो गये- जिसका परिणाम यह हुआ कि कई बार टाल जाने और लड़ने-भिड़ने से बचे रहने की इच्छा होते हुए भी इस्लाम में युद्ध का प्रवेश हो गया, परन्तु उसका नाम ‘जहाद फी सबीलउल्ला’ अर्थात् ‘ईश्वरी मार्ग के लिये प्रयत्न’ रखकर उसे राग-द्वेष की बुराइयों से शुद्ध कर दिया गया।

गंगा के दहाने में डूबा

श्रीमुहम्मद जी के स्वर्ग गमन के पश्चात् जब इस्लाम अरबी सभ्यता का अनुयायी हो गया, तब जेहाद ही मुसलमानों का विशेष कर्तव्य मान लिया गया। इसी अन्ध-श्रद्धा और विश्वास के प्रभाव में अरबों ने ईरान और अफगानिस्तान को अपनी धुन में मुस्लिम बना लेने के पश्चात् भारत पर भी धावा बोल दिया। यहाँ अरबों को शारीरिक विजय तो अवश्य प्राप्त हुई, परन्तु धार्मिक रूप में नवीन इस्लाम की प्राचीन इस्लाम से टक्कर हुई, जो अधिकपक्का और सहस्रों शताब्दियों से संस्कृत होने के कारण अधिक मजा हुआ था। अत. हिन्दू धर्म के युक्ति-युक्त सिद्धान्तों के सामने इस्लाम को पराजय प्राप्त हुई। इसी सत्य को श्रीयुत मौलाना अल्ताफ हुसैन हालीजी ने इन शब्दों में स्वीकार किया है-

वह दीने हिजाजीका बेबाक बेड़ा।

निशां जिसका अक्‍साए आलम में पहुंचा।।
मजाहम हुआ कोई खतरा न जिसका।
न अम्‍मांमें ठटका न कुल्‍जममें झिझका।।
किये पै सिपर जिसने सातों समुंदर।
वह डूबा दहाने में गंगा के आकर।।

अर्थात् अरब देश का वह निडर बेड़ा, जिसकी ध्वजा विश्वभर में फहरा चुकी थी, किसी प्रकार का भय जिसका मार्ग न रोक सका था, जो अरब और बलोचिस्तान के मध्य वाली अम्मानामी खाड़ी में भी नहीं रुका था और लालसागर में भी नहीं झिझका था, जिसने सातों समुद्र अपनी ढाल के नीचे कर लिये थे, वह श्रीगंगा जी के दहाने में आकर डूब गया। ‘मुसद्दए हाली’ नामक प्रसिद्ध काव्य, जिसमें उक्त पंक्तियाँ लिखी हैं, आज तक सर्वप्रशंसनीय माना जाता है। इन पंक्तियों पर किसी ने कभी भी आक्षेप नहीं किया। यह इस बात का प्रसिद्ध प्रमाण है कि इस सत्य को सभी मुस्लिम स्वीकार करते हैं, परन्तु मेरे विचार में वह बेड़ा डूबा नहीं, वरन् उसने स्नानार्थ डुबकी लगायी थी। तब अरबी सभ्यता का मल दूर करके भारतीय सभ्यता में रँग जाने के कारण वह पहचाना नहीं गया।

क्योंकि आचार-व्यवहार-अनुसार तो हिन्दू-धर्म और इस्लाम में कोई भेद ही नहीं था। अरबी सभ्यता यहाँ आकर उस पर भोंड़ी सी दीखने लगी; क्योंकि हिन्दू-धर्म और हिन्दू-सभ्यता एक दूसरे के अनुकूल हैं और यहाँ सैद्धान्तिक विचारों, विश्वासों और आचरण में अनुकूलता होने के आधार पर ही किसी व्यक्ति का सम्मान किया जाता है। ‍‍‍ अत: इस्लाम पर हिन्दुओं के धर्मांचरण का इतना प्रबल प्रभाव पड़ा कि सर्वसाधारण के आचार-व्यवहार में कोई भेदभावन रहा। यदि विशिष्ट मुस्लिमों के हृदय भी पक्षपात से अलग हो जाते तो अरबी और फारसी भाषाओं के स्थान पर हिन्दी और संस्कृत को इस्लामी विचार का साधन बना लिया जाता। अरबी संस्कृति को ही इस्लाम न मान लिया जाता तथा भारतीय इतिहास के माथे पर हिन्दू-मुस्लिम-दंगों का भोंड़ा कल. न लगा होता; क्योंकि वास्तव में दोनों एक ही तो हैं।

इस्लाम में उपनिषदों के सिद्धांत

मौलाना रूम की मसनवीको पढ़ देखो, गीता और उपनिषदों के सिद्धान्तों के कोष भरे हुए मिलेंगे, संतमत के सम्बन्ध में उनका कथन है-

मिल्‍लते इश्‍क अज हमां मिल्‍लत जुदास्‍त।
आशिकां रा मजहबों मिल्‍लत खुदास्‍त।

अर्थात् ‘भक्तिमार्ग सब सम्प्रदायों से भिन्न है। भक्तों का सम्प्रदाय और पन्थ तो भगवान् ही है।’ संतजन सत्य को देश, काल और बोली के बन्धनों से मुक्त मानते हैं। ‘समझेका मत एक है, का पंडित, का शेख॥’ वे सत्य को प्रकट करना चाहते हैं। इसी से जनसाधारण की बोली में ही वाणी कहते हैं। जैसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

का भाषा, का संस्‍कृत, प्रेम चाहिये सांच।
काम जु आवै कामरी का लै करै कमाच।।

इसी सिद्धान्त के अनुसार मुसलमान संतों ने भी कुरआनी शिक्षा को जनता की बोली अर्थात हिन्दी भाषा के दोहों और भजनों के रूप में वर्णन किया, तो उसे सबने अपनाया। क्योंकि उनके द्वारा ही दोनों धर्मों की एकता सिद्ध हो गयी थी। बाबा फरीद के दोहों को ‘श्रीगुरु ग्रन्थ साहब’- जैसी सर्व-पूज्य धार्मिक पुस्तक में स्थान प्राप्त हुआ। निजामुद्दीन औलिया ने स्पष्ट कहा है-

मीसाक के रोज अल्लाह का मुझसे हिन्दी जबान में हमकलाम हुआ था। अर्थात् ‘मुझे संसार में भेजने से पूर्व जिस दिन भगवान् ने मुझसे वचन लिया था, तो मुझसे हिन्दी बोली में ही वार्तालाप किया था।’ मलिक मुहम्मद जायसी, बुल्लेशाह इत्यादि अनेकों मुसलमान संतों ने हिन्दी में ही इस्लामी सत्य का प्रचार किया, जो आज भी वैसा ही लोकप्रिय है। अरबी भाषा के पक्षपातियों ने ईरान इत्यादि मुस्लिम देशों में भी संतों की वाणी के विरुद्ध आन्दोलन किया था।

मौलवियों की करतूतें

भारतीय मुसलमान संतों पर भी मौलवियों ने कुफ्रके फतवे (नास्तिक होने की व्यवस्थाएँ) लगाये। इसी खींचातानी का परिणाम यह हुआ कि वास्तविक इस्लाम न जाने कहाँ भाग गया।
इसका कारण यह था कि तअस्सुब (पक्षपात) ने मौलवी लोगों को अंधा कर दिया था। इसकी व्याख्या मौलाना हाली से सुनिये। वह कहते हैं -

हमें वाइजोंने यह तालीम दी है।
कि जो काम दीनी है या दुनयवी है।।
मुखालिफ की रीस उसमें करनी बुरी है।
निशां गैरते दीने हकका यही है।
न ठीक उसकी हरगिज कोई बात समझो।
वह दिनको कहे दिन तो तुम रात समझो।।

अर्थात् ‘हमें उपदेशकों ने यह शिक्षा दी है कि धार्मिक अथवा सांसारिक-कोई भी काम हो, उसमें विरोधियों का अनुकरण करना बहुत बुरा है। सत्य धर्म की लाजका यही चि. है कि विरोधी की किसी बात को भी सत्य न समझो। यदि वह दिन को दिन कहे तो तुम उसे रात समझो।’ इसके आगे कहा गया है-

गुनाहों से होते हो गोया मुबर्रा।
मुखालिफ पै करते हो जब तुम तबर्रा।।

‘जब तुम विरोधी को गाली देते हो (सताते हो) तो मानो अपने अपराधों से शुद्ध होते हो।‘

बस, मौलवियों के इन्हीं सिद्धान्तों और बर्तावों ने हिन्दू मुसलमानों को पराया बनाने का प्रयत्न किया, जिसका भयानक परिणाम आज विद्यमान है। ‍‍‍‍‍दूय दी णनहीं तो, हिन्-धर्म ने कट्टर मुसलमान बादशाहों के राज् में भीजनसाधारण पर ऐसा प्रभाव डाला था कि मुसलमान लेखक अपनी हिन्-रचनाओं में ‘श्रीगणेशाय नम:’, ‘श्रीरामजी सहाय’, ‘श्री सरस्वती जी,’ ‘श्री राधा जी’, ‘श्री कृष् जी सहाय’, आदि मंगलाचरण लिखने को कुफ्र (नास्तिकता) नहीं समझते थे।प्रमाण के लिये अहमद का ‘सामुद्रिक’, याकूबखाँ का ‘रसभूषण’ आदि किताबें देखी जा सकती है। अरबी के पक्षपातियों की दृष्टि में भले ही यह पाप हो, परन्तु ‘कुरआन’ की आज्ञा से इसमें विरोध नहीं है।

इस्लाम चमक उठा था

कुरआन की इन्हीं आज्ञाओं को मानकर ईरान के एक कवि ने म.लाचरण का यह पद पढ़ा है –

बनाम आंकिह कि ऊ नामे नदारद।
बहर नामे के रबानी सर बरारद।।

अर्थात् उसके नाम से आरम्‍भ करता हूं कि जिसका कोई नाम नहीं है, अत: जिस नाम से पुकारो-काम चल जाता है।

‍‍‍दू‍यदि पक्षपाती और कट्टर मौलवी ऊधम न मचाते, संसार स्वर्ग बन जाता। क्योंकि हिन्-धर्म के पवित्र प्रभाव से, मंजकर इस्लाम चमक उठा था। सत्याग्रही और न्यायशील मुसलमानों ने तो मुसलमान शब्द को भी ‘हिन्दू’ शब्द का समर्थक ही जाना। इसी कारण से सर सय्यद अहमद खाँ ने कई बार अपने भाषणों में हिन्दुओं से प्रार्थना की कि उन्हें हिन्दू मान लिया जाय, जिस पर उन्हें अपने लिये काफिर की उपाधि ग्रहण करनी पड़ी।

यदि दोनों धर्मों में सैद्धान्तिक एकता सिद्ध न की जाय, तो निबन्ध अधूरा रह जायगा; परन्तु वास्तव में इसकी आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि जैसे हिन्दू-धर्म किसी एक सम्प्रदाय का नाम नहीं है, वरन् मानवधर्म के अनुयायी सभी सम्प्रदाय हिन्दू कहलाते हैं-

कारण कि मानव-धर्मका ही एक नाम हिन्दू-धर्म भी है, और ईश्वर के अस्तित्व को न मानने वाले आर्य समाज जैसे सम्प्रदाय भी हिन्दू ही कहलाते हैं- उसी प्रकार इस्लाम में भी अनेकों सम्प्रदाय विद्यमान हैं। खुदाकी हस्ती (ईश्वर का अस्तित्व) न मानने वाला नेचरी फिरका भी मुसलमान ही कहलाता है।

इस्लाम और अद्वैत

पक्षपाती और कट्टर मुसलमानों को जिस तौहीद (अद्वैत) पर सबसे अधिक अभिमान है और जिसे इस्लाम की ही विशेषता माना जाता है, उसके विषय में जब हम कुरआन की यह आज्ञा देखते हैं-

‍‍‍‍ना‍ ‍कुल आमन् बिल्लाहि माउंजिल अलेना व मा उंजिल अला इब्राहीम व इस्माईल व इस्हाक व यअकूब वालस्वातिव मा ऊती मूसा व ईसा वलबीय्यून मिंर्रबिहिम ला नुफर्रिकु बैन अहदिम्मिन्हुम व नह्न लहु मुस्लिमून।

अर्थात् (ऐ मेरे दूत! लोगों से ) कह दो कि हमने ईश्वर पर विश्वास कर लिया और जो (पुस्तक अथवा वाणी) हमपर उतरी है, उसपर और जो ग्रन्थ इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक, याकूब और उसकी सन्तानों पर उतरी, उसपर भी तथा मूसा, ईसा और (इनके अतिरिक्त) अन्य नबियों (भगवान् से वार्तालाप करने वालों) पर उनके भगवान् की ओर से उतरी हुई उन सब पर (भी विश्वास रखते हैं) और उन (पुस्तकों तथा नबियों) में से किसी में भेद-भाव नहीं रखते और हम उसी एक (भगवान्) को मानते हैं। और इस आज्ञा के अनुसार तौहीद को समझने के लिये हिन्दू-सद्ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं, तो जान पड़ता है कि मौलवी लोग तौहीद को जानते ही नहीं। यदि जानते होते हो स्वर्गीय स्वामी श्री श्रद्धानन्द, महाशय राजपाल इत्यादि व्यक्तियों की हत्या का फतवा (व्यवस्था) न देते और न पाकिस्तान ही बनता।

पंजाब और बंगाल का घृणित हत्याकाण्ड भी देखने में न आता। जहाँ तक मैंने खोज की है, मौलवियाना इस्लाम में यह तौहीद ‘दिया’ लेकर ढूँढ़ने से भी नहीं मिलती, हाँ, संतों के इस्लाम में इसी का नाम तौहीद है।

मिआजार कसे व हर चिन्‍ह खाही कुन।
कि दर तरीकते मन गैर अजीं गुनाहे नेस्‍त।।

अर्थात् ‘किसी को दु.ख देने के अतिरिक्त और तेरे जी में जो कुछ भी आये, कर; क्योंकि मेरे धर्म में इससे बढ़कर और कोई पाप ही नहीं।’

दिल बदस्‍तारद कि ह‍ज्जि अकबरस्‍त।
अज हजारां कआबा यक दिल बेहतरस्‍त।।

अर्थात्- दूसरों के दिल को अपने वश में कर लो, यही काबाकी परम यात्रा है; क्योंकि सहस्रों काबों से एक दिल ही उत्तम है। कुरआन में भगवान् ने बार-बार कहा है-

इनल्लाह ला यहुब्बुल्जालिमीन (अथवा मुफ्सिदीनइ त्यादि) अर्थात् भगवान् अत्याचारियों (अथवा फिसादियों) से प्रसन्न नहीं होता।

एक हदीस में भी आया है-

सब प्राणी भगवान् के कुटुम्बी हैं। अत. प्राणियों से भगवान् के लिये ही अच्छा बर्ताव करो- जैसा अच्छा कि अपने कुटुम्ब वालों से करते हो। इस इस्लाम और हिन्दू-धर्म में कोई भेद नहीं।

(साभार-कल्‍याण)

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