Hinduism is the Only Dharma

Hinduism is the Only Dharma in this multiverse comprising of Science & Quantum Physics.

Josh Schrei helped me understand G-O-D (Generator-Operator-Destroyer) concept of the divine that is so pervasive in the Vedic tradition/experience. Quantum Theology by Diarmuid O'Murchu and Josh Schrei article compliments the spiritual implications of the new physics. Thanks so much Josh Schrei.

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Friday, September 9, 2011

हिन्दी.हिन्दू.हिन्दुस्तान: चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम...

हिन्दी.हिन्दू.हिन्दुस्तान: चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम...: ( रामदास सोनी) at hindugatha.blogspot.com घमासान युद्ध आरंभ हो चुका था। दो रात और एक दिन तो युद्ध के कारण दोनों पक्षों के सैनिक खाना-सोना त...


चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम - PART -1


मेवाड़ राज्य की राजधानी चित्तौडग़ढ़ का राजप्रासाद।


मेड़तिया राठौड़ जयमल्ल वीरमदेवोत,चूंडावत सरदार रावत साईदास, बल्लू सोलंकी, ईसरदास चहुवान, राज राणा सुलतान सहित दुर्ग के सभी प्रमुख रण बांकुरे सरदारों के तेजस्वी वेहरों पर चिन्ताभरी उत्सुकता दिखाई दे रही थी। सभी की निगाहें बादशाह अकबर के पास समझौता प्रस्ताव लेकर गए रावत साहिब खान चहुवान और डोडिया ठाकुर सांडा पर टिकी थी। अकबर के शिविर से लौटे दोनों ठाकुरों का मौन अच्छी खबर का परिचायक न होने के बावज़ूद भी वे युद्ध टलने की आशा न छोड़ पा रहे थे। वातावरण की निस्तब्धता भंग की जयमल्ल ने। उसने पूछा- ''क्या बात है सरदारों आपके चेहरों पर खिन्नता क्यों है? क्या बादशाह ने हमारी समझौते की पेशकश ठुकरा दी? अथवा उसमें कोई असंभव सी शर्त लगाई है?''



डोडिया ठाकुर ने मातृभूमि के लिये सर कटाने को तैयार बैठे जुझारू सरदारों की ओर देखा ''आप ठीक समझे। बादशाह चित्तौड़ विजय के साथ महाराणा उदयसिंह का समर्पण भी चाहता है। उसने कहा है कि महाराणा के हाजिर हुए बगैर किसी भी तरह संधि संभव नहीं है। बादशाह के अमीरों और सलाहकारों ने भी उसे समझौता कर लेने की राय दी थी। लेकिन वह तो राणा के समर्पण के बगैर बात करने को भी तैयार नहीं है। शायद उन्हें कुँवर शक्तिसिंह का बिना आज्ञा शिविर से चले आना अपमान जनक लगा है। खैर बादशाह के मन में चाहे जो टीस हो। लेकिन महाराणा के समर्पण का तो प्रश्न ही नहीं उठता। वे मेवाड़ी सम्मान, आन-बान के प्रतीक हैं। हमारे रहते मेवाड़ी आन पर आंच नहीं आ सकती। हम रहें या न रहें, लेकिन महाराणा के सुरक्षित रहने पर वे कभी न कभी हमलावरों को मेवाड़ से खदेडऩे में सफल हो जाएंगे। महाराणा के समर्पण के बाद तो शेष क्या रह जाएगा?''


रावत पत्ता सारंगदेवोत ने कहा। युद्ध के प्रश्न पर सभी सरदार एकमत थे। अपनी निश्चत पराजय से भिज्ञ होने पर भी लड़े बगैर, प्राण रहते मेवाड़ी गौरव चित्तौडग़ढ़ बादशाह को सौंप देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। प्राण रहते युद्ध करने के संकल्प के साथ सरदारों की मंत्रणा समाप्त हुई। सन् 1567 में मेवाड़ की राजधानी चित्तौडग़ढ़ पर हुए मुगलिया हमले का वास्तविक कारण अकबर की सम्पूर्ण भारत पर प्रभुत्व पाने की लालसा थी। किन्तु प्रत्यक्ष कारण एक छोटी सी घटना थी। मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह का छोटा पुत्र शक्तिसिंह पिता से नाराज़ हो कर अकबर के पास चला गया था। 31 अगस्त 1567 को मालवा पर फौजकशी के लिये आगरा से रवाना हुए अकबर का पहला पड़ाव धौलपुर के पास लगा। दरबार में शक्तिसिंह को देख कर अकबर को दिल्लगी सूझी। उसने कहा, शक्ति सिंह हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े राजा हमारे दरबार में आकर हाजिर हुए। लेकिन राणा उदयसिंह अभी तक नहीं आया। इसलिये हम उस पर चढ़ाई करना चाहते हैं। इस हमले में तुम भी हमारी मदद करना। अकबर के कथन की परीक्षा किये बिना ही वह इसे सच समझ बैठा। पिता के प्रति नाराजग़ी होने पर भी उनके विरूद्ध सैनिक अभियान में भाग लेने की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था।



पिता को समय रहते बादशाही इरादे से अवगत कराने के लिये उसने अपने साथियों के साथ बिना अनुमति लिये बादशाही शिविर छोड़, चित्तौड़ की ओर प्रस्थान कर दिया। शक्तिसिंह की इस हरकत से बादशाह को बहुत क्रोध आया और उसने मेवाड़ पर चढ़ाई का पक्का इरादा बना कर कूच कर दिया। रणथम्भौर के जिले का शिवपुर किला बिना लड़े हाथ आ जाने को अच्छा शगुन मान कर वह कूच करता हुआ कोटा जा पहुँचा। वहाँ के किले और प्रदेश को शाह मुहम्मद कंधारी के सिपुर्द करग् उसने गागरोन को जा घेरा। अकबर ने शाह बदाग खाँ, मुराद खाँ और हाजी मोहम्मद खाँ को माँडलगढ़ विजय के लिये रवाना कर स्वयं चित्तौड़ की ओर कूच किया। उधर शक्तिसिंह ने चित्तौड़ पहुँच कर महाराणा उदयसिंह को अकबर के इरादों की सूचना दी। महाराणा ने मेड़ता के राव वीरम देव के पुत्र जयमल्ल राठौड़, रावत साईंदास चूंडावत, राजराणा सुल्तान, ईसरदास चहुवान, पत्ता चूंडावत, राव बल्लू सोलंखी और डोडीया सांडा के अतिरिक्त महाराज कुमार और प्रतापसिंह और राजकुमार शक्तिसिंह आदि के साथ युद्ध मंत्रणा के दौरान सरदारों ने कहा कि गुजराती बादशाहों के साथ हुए युद्धों के कारण राज्य की सैन्य और आर्थिक स्थिति काफी कम हो गई है, इस कमज़ोर स्थिति में बादशाह अकबर से मुकाबला करने में पराजय निश्चित है।


ऐसे में यही उचित होगा कि महाराणा राजकुमारों और रनिवास सहित पहाड़ों में सुरक्षित चले जाएं और हम सभी सरदार यहाँ रह कर मुगलों से मुकाबला करें। थोड़े से बहस, दबाव के बाद महाराणा अपनी 18 रानियों और 24 राजकुमारों के परिवार और कुछ सामंतों के साथ अरावली की दुर्गम श्रृंखलाओं में चले गए। वहाँ से गुजरात की ओर रेवा कांठा पर गोडिल राजपूतों की राजधानी राज पीपलां पहुँच गए जहाँ राजा भैरव सिंह ने उनकी बड़ी खातिरदारी की। महाराणा वहाँ चार माह तक रहे। 23 अक्टूबर 1567 को अकबर ने चित्तौड़ से तीन कोस उत्तर में पांडोली, काबरा और नगरी गाँवों के बीच विशाल मैदान में अपना सैन्य शिविर लगाया। पैमायश वालों से किले की लम्बाई-चौड़ाई नपवा कर, अनेक बाधाओं के बावज़ूद उसने मोर्चाबन्दी पूरी कर डाली। किले के उत्तरी लाखोटा दरवाजे पर अकबर ने स्वयं मोर्चा संभाला । यहाँ किले के अन्दर मेड़तिया राठौड़ जयमल मुकाबले के लिये तैयार खड़ा था। पूर्वी सूरजपोल दरवाजे पर उसने राजा टोडरमल, शुजात खां और कासिम खां को तैनात किया, जिनका मुकाबला चूंडावतों के मुख्य सरदार रावत सांईदास से था। दक्षिण दिशा में चित्तौड़ी बुर्ज के सामने मोर्चे का इन्तजाम आसिफ खां और वज़ीर खां को सौंपा गया, जहाँ किले के अन्दर बल्लू सोलंखी आदि की चौकी थी। इसी प्रकार किले के अंदर पश्चिम में राम पोल, जोड़ला पोल, गणेश पोल, हनुमान पोल और भैरव पोल पर तैनात डोडिया ठाकुर सांडा, चहुवान ईसर दास, रावत साहिब खान और राजराणा सुल्तान आदि से मुकाबला करने के लिये अकबर ने अपनी सेना के अनेक बहादुर सेनानायकों को नियुक्त किया था। दुर्ग में युद्धरत राजपूतों को बाहरी सैनिक सहायता समाप्त करने के लिये अकबर ने आसिफ खाँ को रामपुरा की ओर रवाना किया। रामपुरा के अच्छे योद्धा तो चित्तौड़ दुर्ग में आ गए, जबकि राव दुर्गभाण महाराणा के साथ चला गया था।


रामपुरा की रक्षा के लिये छोड़े गए मुठ्ठी भर राजपूत अपने प्राण देकर भी निश्चित पराजय को रोकने में सफल नहीं हो सके। रामपुरा विजय के के बाद थोड़ी सी सेना छोडक़र आसिफ खाँ चित्तौड़ लौट आया। इसी प्रकार उदयपुर और कुंभलगढ़ पहाड़ों की और भेजा गया हुसैन कुली खाँ भी इस क्षेत्र में लूटपाट करता हुआ चित्तौड़ आ गया। दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं, सघन वनों और सुदृढ़ प्राचीरों से घिरे दस वर्ग मील क्षेत्रफल वाले विशाल चित्तौडग़ढ़ पर आक्रमण यद्यपि आसान न था लेकिन अकबर की एक लाख सेना दुर्ग की घेराबंदी करने में सक्षम थी। बाहर के सभी रास्ते बन्द हो जाने से राजपूत जैसे चूहेदानी में फँस कर रह गए थे। लेकिन एक लाख शाही सेना के मुकाबले में खड़े आठ हजार राजपूतों के हौसलों में कोई कमी नहीं थी। संख्या के अनुपात का विषम अन्तर साधनों के मामले में तो तुलना करने जैसा ही नहीं था। अकबर की तोपों बंदूकों के मुकाबले में उनके पास तीर और पत्थर फेंकने वाली गोफनें ही थीं। तलवार, भाले, ढाल, कटार आदि परम्परागत अस्त्र तो आमने-सामने के युद्ध में ही काम आ सकते थे। फिर भी साधनविहीन जुझारू राजपूतों के जवाबी हमलों से शाही सेना को हर बार भारी नुकसान उठाना पड़ता था।


किले से होने वाली बक्सरिया मुसलमानों के एक हजार बन्दूकचियों की अचूक निशानेबाजी शाही सेना के नुकसान को और बढ़ा कर राजपूतों की हौसला अफजाई करती। किले की उँचाई और विशालता के कारण शाही तोपखाना भी बेअसर सिद्ध हो रहा था।


दो माह गुजऱ जाने पर भी शाही सेना के भारी जानमाल के नुकसान के कारण चित्तौड़ विजय असंभव प्रतीत होने लगी थी। किन्तु युवा अकबर का मनोबल काफी ऊँचा था। उसने बारूदी सुरंगों के द्वारा किले की दीवारें तोडऩे का निर्णय लिया। किले से आने वाले तीरों, पत्थरों और गोलियों की बौछारों के बीच दक्षिण में चित्तौड़ी की बुर्ज के नीचे सुरंगे खोदने का काम आरंभ हुआ। शाही सेना किले से होने वाले हमले का जवाब देती थी, जबकि गोलियों और तीरों की बौछारों के नीचे मजदूर सुरंगें खोदते थे। एक के मर जाने पर दूसरा स्थान लेता था। मजदूरी भी स्वर्ण मुद्राओं में दी जा रही थी। अन्ततः सुरंगें तैयार हुईं। एक में 120 मन और दूसरी में 80 मन बारूद भरा गया. बारूद विस्फोट से दीवार उड़ते ही शाही सेना को जबरदस्त हमले का आदेश था। 17 दिसम्बर 1967 को एक सुरंग में किये विस्फोट से किले का बुर्ज, उस पर तैनात 90 सैनिकों के साथ उड़ गया। उसके पत्थर कई मील दूर जा गिरे। विस्फोट की आवाज पाँच कोस तक सुनी गई थी। बुर्ज उड़ते ही शाही सेना ने हमला कर दिया। किन्तु उनके किले की दीवार के पास पहुँचते ही दूसरी सुरंग में विस्फोट हो गयाग् किले की प्राचीर को जो क्षति पहुँची सो पहुँची लेकिन आक्रमण के लिये आगे बढ़ी शाही सेना के सैंकड़ों सैनिक इस विस्फोट की भेंट चढ़ गए। इनमें बरार के सैयद अहमद का पुत्र जमालुद्दीन, मीर खाँ का बेटा मीरक बहादुर, मुहम्मद सालिह हयात, सुलतान शाह अली एशक आगा, याजदां कुली, मिर्जा बिल्लोच, जान बेग, यार बेग सहित अकबर के बीस महत्वपूर्ण सरदार मारे गए थे।


उनके अंग कई मील दूर जा गिरे। विस्फोट में मारे गए सैनिकों की संख्या अकबर नामा में दो सौ बताई गई है और तबकात अकबरी में पाँच सौ बताई है। इस भारी नुकसान से शाही सेना के हौसले पस्त हो गए और वह दुबारा हमला करने का साहस नहीं कर सकी। दूसरी ओर राजपूतों ने रातों रात मरम्मत करके किले को पुनः अजेय बना दिया। इस जबरदस्त दुर्घटना के बावजूद अकबर का मनोबल नहीं टूटा। किले के अन्दर तक तोपों की मार करने के लिये पहाड़ी जैसे किसी ऊंचे स्थान की आवश्यकता थी। किले के आसपास कोई उपयुक्त स्थान न देख उसने कृत्रिम पहाड़ी बनाने का निर्णय लिया। किले के पश्चिमी ओर मजदूरों से मिट्टी डलवाने का काम शुरू हुआ। तीरों और गोलियों की बौछारें मिट्टी डालने वालों को भी मिट्टी में मिला रही थी। प्राणों का डर होने से मजदूर न मिलने पर अकबर ने मिट्टी की टोकरी की मजदूरी एक रूपया कर दी और बाद में तो उसने एक सोने की मोहर प्रति टोकरी भी दी। लालच में आकर सैंकड़ों मजदूर मारे गए। लेकिन अंत में पहाड़ी बन कर तैयार हो गई। मोहरों में मजदूरी दिये जाने के कारण इसका नाम मोहरमगरी पड़ा। इस पहाड़ी पर तोपें चढ़ाने का सिलसिला आरम्भ हुआ। एक तोप के लुढक़ जाने से बीस सैनिक मारे गए। अन्ततः पहाड़ी पर तोपें चढ़ा कर किले में गोले बरसाए गए। शाही सेना के कुशल गोलन्दाज़ों ने अचूक निशाने लगा कर किले की दीवार को कई स्थानों से तोड़ दिया। इन टूटे स्थानों से हल्ला मचाती प्रवेश करने बढ़ती शाही सेना को राजपूत तीरों गोलियों के अतिरिक्त गरम तेल और जलते हुए रूई और कपड़ों के गोले फेंक कर रोक रहे थे।
( रामदास सोनी) at hindugatha.blogspot.com

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